
यह दुनिया ले देकर चलती है | जय वर्मा
बात यदि प्रेम की हो तो सभी के हृदयों में गुदगुदी होने लगती है।यहाँ प्रेम से अभिप्राय प्रणय से अर्थात स्त्री-पुरुष के आकर्षण सम्बन्धी सम्बन्धों से है।
जैसे ही प्रेम की बात उठती है हर एक का एक न एक किस्सा खिल जाता है।इतना ही नहीं जरा जरा से छोकरे जिन्हें पतलून/ पेंट पहनने की तमीज नहीं होती इस विधा में महारथ हासिल कर लेते हैं; और कई बार तो वयस्कों से चार कदम आगे चलते हैं।
शिक्षा का कुछ आये न आये ‘एक गर्लफ्रेंड मेरी भी ‘की शान होनी चाहिए । तो इस लिहाज से प्रेम में पड़ना क्या हुआ ?
एक सप्रयास चाह,एक सशर्त रिश्ता ही न। सशर्त रिश्ता!? ये शब्द घंटी बनकर बजा होगा दिमाग में।
हाँ,प्यार सशर्त ही होता है और पहले से मस्तिष्क में जम चुकी धारणाओं के परिणाम स्वरूप होता है। सशर्त ऐसे की पुरुष में प्रेम जाग्रत होने की पहली शर्त ही प्राय: सोंन्दर्य होती है।
किसी वीभत्स, कुरूपा,अनाकर्षक,रूपहीना स्त्री से पुरुष को प्रेम नहीं होता।सहानुभूति या कोई समझौतापूर्ण रिश्ता भले ही हो जाये।और एक दृष्टि का प्रेम तो कदापि नहीं हो सकता है।
ठीक ऐसे ही स्त्री भी उस पुरुष से ज्यादा दिन प्रेम नहीं कर पाती जिससे उसकी समस्त भौतिक आकांक्षायें पूर्ण न हों। वो चाहे धन सम्बन्धी हों या शारीरिक सुख सम्बन्धी। क्योंकि ये सब प्रेम नहीं प्रेम के भ्रम होते हैं,या कहें प्रेम के नाम पर समझौते,आवश्यकताओं की पूर्ति मात्र ।
देखने में आता है कि लोगों को प्रेम अपने आसपास रोज-रोज मिलने वालों में से किसी से हो जाता है।पुरुष ने संतुलित सधा हुआ रूप देखा और स्त्री ने सुरक्षित भविष्य; प्यार हो गया।और अब तो पुरुष भी सुरक्षित भविष्य देखने लगे हैं।
जब इतनी सीमितताओं में प्यार हो जाता है तो स्वतंत्र और प्राकृत तो न हुआ। बिना वाकफियत वाले शख्स को एक या दो बार देखकर प्यार नहीं होता ।भले ही हम प्रभावित और आकर्षित हों किन्तु शनैः शनैः भूल जाते हैं।बल्कि जो शख्स पहुँच में हो एवं रोज उपलब्ध हो ,हम आकर्षित हों,भले ही कम सुन्दर,कम योग्य हो हम काम चलाते हैं, भ्रम होता है सोचते हैं प्यार हो गया।
हम औकात में रहकर प्यार करते हैं, यदि ऐसा न हो तो सबको रणवीर कपूर, वरुण धवन, कैटरीना, प्रियंका आदि से प्यार हो।तो फिर हुआ न समझौता कि किसी से तो करना ही है यही सही। थोड़ी सी जिद पूरी कर लेते हैं बस। क्योंकि अधिकांश लोग चाहते हैं प्यार में पड़ना।
“चाहते हैं प्यार में पड़ना” का मतलब ही यही है कि दिमाग लगाकर,सोच-विचार कर गणित बैठाकर प्यार किया जाता है। वो कैसा/कैसी रहेगा/रहेगी। चलो ये ही ठीक है आदि। अगर ऐसा नहीं होता तो तथाकथित प्यार हर जगह गली गली न होता।अबोध किशोरों में इसका फैशन न होता।
भले ही वह तथा कथितप्रेम हो जिसे आकर्षण, फैशन , स्वांग या देखादेखी कुछ भी कहा जा सकता है किन्तु खालिस प्रेम नहीं क्योंकि प्रेम संभवतः पूर्णतयः शर्तविहीन होना चाहिए । लेन- देन,मान-अपमान, हानि-लाभ,भला-बुरा,सुन्दर असुन्दर,धनी-निर्धन से परे। अगर ऐसा नहीं है, तो ढोंग है, दिखावा है, बनावट है,स्टेटस सिंबल है, फैशन है,समझौता है, प्रेम नहीं। प्रेम एक दुर्लभ वस्तु है, यह सत्य और ईश्वर की ही तरह हर जगह होकर भी नहीं होता/मिलता।
ऐसा नहीं कि उक्त विषय पर लिखा नहीं गया, प्रेम पर तो बहुत- बहुत लिखा गया।पर अधिकांश मीठा-मीठा और वो भी सच्चे प्यार पर। और इस सत्य किन्तु कड़वे, स्वार्थपूर्ण पहलू पर भी लिखना जरूरी लगा, सो लिखा। प्यार हो तो स्थिर हो हर हाल में दृढ़ हो, अचल,अटल हो।
एक बार में ये लेख अजीब लगेगा, इसका विरोध करने का मन होगा पर जब गहराई से विचार किया जायेगा तो सच में महसूस होगा कि ‘ये दुनिया ले देकर चलती है।’
-जय वर्मा

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