आज भी गुल्लक में कभी कभी खन्न-खना जाती है मेरी नानादानियाँ,
उस सरगम से प्यारी अवाज सुन मुस्कुरा रहा हूँ मैं,
सोचता हूँ कि कितना नादान था वो बचपन अब झूठ पे झूठ की ईमारत बना रहा हूँ मैं,
अपनी जिंदगी की हर कहानी याद है मुझे बस उनके किरदारों से जुड कहाँ रहा हूँ मैं,
शायद सच तो कभी बोला ही नहीं मैंने झूठ के साये में जिंदा रहा हूँ मैं,
खामोश रहने की वजह चार थी खुद की ना सुनने के लिए चिल्ला रहा हूँ मैं,
एक तीखा सा सवाल आज मन में बैठा है बस मीठी सी जुबान के पीछे सन्नाटा छुपा रहा हूँ मैं,
है सच है कि जवाब मालुम नहीं मुझे उसी तालाश कि तलाश में ही तो भटकता जा रहा हूँ मैं,
और अगर जवाब ना मिला तो क्या मायुश हो जाऊंगा,
अरे लिखता हूँ तो लिख देता हूँ सवालों को कागजो पे बदल देता हूँ आखिर झूठ ही तो हूँ,
हकीकत से वाकिफ कब और कहाँ रहा हूँ मैं, ये तो हर रोज का है मेरा कि.
कोई मिलता है रुकता है दो बात करने मुझसे तो बता देता हूँ उसे कि,
सुनो किसी को कहना मत तेरे सामने एक राज रख रहा हूँ मैं,
इसलिए, इसलिए अगली बार कहू मैं तुमसे जो कि तुम ही हो वो,
मत सुनना मेरी,
अरे भरोसा करने लायक अब कहाँ रहा हूँ मैं,
लिखता हूँ तो लिख देता हूँ तेरे हर इनकार को कागजों पे इजहार में बदल देता हूँ,
पन्नों की बात मत करना मुझसे ना पसंद आने पर तो किताब बदलता रहा हूँ मैं,
आखिर भरोसा करने लायक कहाँ रहा हूँ मैं
-रस्तू कुमारी

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