सब निकले बेवफा इस कदर,
कि दिवारों के भी कान हो गए,
जिसे समझा हमने सोने का महल,
पल भर में श्मशान हो गए।
वो कहते हम दिल के गरीब,
खुद शहर के बेवफा हैं,
जिसे माना खुदा दिल का,
वो दिल के शैतान हो गए।
तुम आशिक होंगे अपने जहाँ के,
हम भी बड़े मुश्ताक हैं,
तुम्हें समझा था प्यार अपना,
तुम हम पर एहसान हो गए।
इश्क में यूँ नाकाम हुआ मैं,
अब लिखने से भी डरता हूँ,
तुम लिखने की वजह देते हो,
जैसे अब फरमान हो गए।
-आशीष कुमार लोधी

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Ashish, apki kavita me kahin n kahin mujhe aapka ateet nazar aata hai, likhte raho yunhi ham bhi to jane wo ateet ki yaadon jo aapke man ke kisi kone me pasri hain.
Sundar kavita.